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गाँधी जी भारत में आज अधिकांशत: चौराहों पर, सरकारी दफ्तरों और शिक्षण संस्थानों की दीवारों पर और मुद्रा एवं डाक टिकटों पर चित्रों के रूप में ही नजर आते हैं. लोगों के अन्दर गाँधी जी नजर आना बंद हो गए हैं, जबकि आजादी के बाद एक बार गाँधी जी ने कहा था कि अब हमारा देश आजाद हो गया है. अब तुम्हे गाँधी की आवश्यकता नहीं है. अब तुम सबको स्वयं गाँधी बनना है और देश का समग्र विकास करना है.
गाँधी जी इस संसार को अलविदा कहने से पहले ही सत्य और अहिंसा की विचारधारा का प्रतीक बन चुके थे और चाहते थे कि लोग उनके इस गुण का अनुसरण करके सत्य और अहिंसा की विचारधारा को आत्मसात करें. किन्तु दुर्भाग्य यह है कि यह श्रेष्ठ विचारधारा आज मात्र मुखौटों में ही बची है. इसे सम्पूर्णता से आत्मसात करने वाला इस समूचे विश्व में कोई दूर तक नजर नहीं आता. हाँ, इतना अवश्य है कि भारत में इस विचारधारा का दिखावा करने की होड़ सी लगी हुई जरूर नजर आती है.
प्रत्येक सरकारी कार्यालय, सरकारी कर्मचारी और राजनीतिक एवं गैर राजनितिक संगठन स्वयं को गाँधीवादी दृष्टिकोण को अपनाया हुआ निकाय बताना अवश्य चाहता है, जिससे कि निश्चित लाभ के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके. यह होड़ २ अक्टूबर और ३० जनवरी को अपने चरम पर पहुँच जाती है. किन्तु वास्तव में गाँधी कोई बनना नहीं चाहता, क्योंकि गाँधी बनने के लिए त्याग करना पड़ेगा. आदर्शो का जीवन सत्यता और निष्पक्षता के साथ जीना पड़ेगा और उससे आसान तो गांधीवादी होने का दिखावा करना ही बेहतर है. अत: गाँधी बनने से सब दूर रहना चाहते हैं और जैसा कि मैंने ऊपर कहा गाँधीवादी तो सब हैं ही.
किन्तु यह सवाल मेरे मन में उठता रहता है कि क्या सचमुच गाँधी जी ने भविष्य के लिए यही कल्पना की थी कि उनके जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर फूल चढ़ाए जायें? सरकारी दफ्तरों और विद्यालयों में तथा चौराहों पर उनकी प्रतिमा खड़ी की जाए. मुद्रा एवं डाक टिकटों पर उनकी चित्र अंकित की जाये और सबसे महत्वपूर्ण सवाल कि मात्र गाँधी जयंती के दिन ही शराब का विक्रय एक दिन के लिए बंद रखा जाये?
गाँधी जी जैसे कर्मठ व्यक्ति के जन्मदिवस पर भारत के लोग अकर्मठ होकर छुटि्टयां मनायें? और गाँधी जी को लोग जेब में और तिजोरियों में बंद रखना ही पसंद करें? क्या उनके सारे सत्याग्रह और उनके सारे मूल्य, सारे आदर्श मात्र इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए थे? या इससे बढ़कर वो भारत के लोगों से अपेक्षा करते थे? क्या उनका जीवन मात्र आजादी की लड़ाई के लिए समर्पित था या वे किसी और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सारा जीवन संघर्ष करते रहे?
वास्तव में गाँधी जी मात्र भारत की आजादी के लिए नहीं लड़ रहे थे, वरन वे समूचे विश्व के व्यक्तियों को उनके अवगुणों से लड़कर एक श्रेष्ठ व्यक्तित्व में बदलने को सहायता कर रहे थे. उनके जीवन-संघर्ष का महत्व आजादी की लड़ाई से भी कहीं अधिक विशाल था. वे चाहते थे समूचे विश्व के व्यक्ति सत्य, अहिंसा, दया और मानवता का महत्व समझकर इसे आत्मसात करें.
उनकी इच्छा थी कि समूचा विश्व धर्म, जाति, प्रान्त, भाषा और रंगभेद से बाहर निकलकर शांति और सत्य की स्थापना करे. यही कारण है कि वे अपने पूरे जीवन भर रामराज्य की आस लिए इस संसार को विदा कह गए और उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी. गाँधी जी जब इस संसार से गए तब वे मरे नहीं थे. वे आज भी जिन्दा हैं गांधीवादी विचारधारा में, लोगों के ह्रदय में.
मगर आज समूचे विश्व में फैले द्वेष-भाव, धार्मिक-उन्मान्दता, लालच, भ्रष्टाचार और शक्ति एवं सामर्थ्य की होड़ को देखकर पल-पल मर रहे हैं. गाँधी जी चाहते थे कि सभी अपने अंदर एक गाँधी का निर्माण करें, लेकिन लोगों ने अपने अंदर रावण का निर्माण किया हुआ है, वहां गाँधी जी के लिए कोई स्थान नहीं है. अगर यह स्थान गाँधी जी के लिए रिक्त नहीं किया गया, तो सचमुच गाँधी जी मर जायेंगे.
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