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“कट्टरपंथी मनुष्य किसी भी धर्मं का हो वास्तव में वह धर्म से कोसों दूर होता है”

Awara Masiha
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कट्टरपंथी मनुष्य किसी भी धर्मं का हो वास्तव में वह धर्म से कोसों दूर होता है. हिन्दू, इस्लाम, सिख, इसाई या पारसी कोई भी धर्म नही है यह तो मात्र विचार धाराओं और मतों के नाम है या भाषाई अनुवाद है. हम सभी इस धरती पर स्त्री के गर्भ से मनुष्य के रूप में पैदा होतें हैं. हम में से कोई भी किसी भी धर्म में पैदा नही हुआ. हमें हिन्दू, मुस्लिम, इसाई या कुछ और तो हमारे माता पिता, और हमारी पंथ प्रधान शिक्षा व्यवस्था का वातावरण बनाता है,और फिर हम हिन्दू मुस्लिम बनकर धर्म का चोला पहन कर स्वय को श्रेष्ठ दिखाने की कोसिस मात्र कर रहे हैं. और अपने भीतर खुद ही खुद को श्रेष्ठ समझ कर प्रसन्न है. जैसा मैंने कहा कि वास्तव में “धर्म” सिर्फ विचारों या मतों का नाम है ठीक उसी प्रकार आप ये बात महसूस करते हैं की प्रत्येक धार्मिक पुस्तक में लगभग समान विचार लिखे हैं. सभी धार्मिक पुस्तकें सत्यनिष्ठा और नैतिकता का पाठ पढ़ाती हैं. कोई भी धार्मिक पुस्तक असत्य के मार्ग का चुनाव करना नही सिखाती. धर्म के नाम पर इन सभी मतों की उत्पत्ति तत्कालीन परिस्थितियों के विरोधाभास से हुई है. और प्रत्येक धार्मिक पुस्तक सम्बंधित धर्म संस्थापक के तत्कालीन स्थितियों में अर्जित ज्ञान, बोद्धिक स्तर, और अनुभवों का निचोड़ है.निश्चित रूप से धर्म संस्थापक का यह ज्ञान और अनुभव अविश्वसनीय रूप से अनेकानेक शताब्दियों और युगों में सत्य और उचित साबित हुआ है. और इसी ज्ञान, बौद्धिक्ता और अनुभव को लोग धर्म मानकर अपने धर्म संस्थापक के मार्ग का अनुकरण करने लगे और इस प्रकार प्रथाओं का जन्म हुआ. धर्म संस्थापकों ने धर्म की स्थापना करते समय भरकस कोसिस की है कि उनका धर्म एक आदर्श धर्म बने फिर भी इन सभी धर्मों में अनेक प्रथाओ के साथ-साथ जाने अनजाने कुप्रथाओं ने जन्म भी लिया और ये प्रथाएं और कुप्रथाएं पीढ़ियों से चली आ रही हैं.
किसी मत या पंथ का अनुकरण करना कोई गलत कार्य भी नही है. अपनी प्रथाओं को निभाना भी आपत्तिजनक नही होना चाहिए लेकिन कुप्रथाओं को निभाने के लिए अपनी बोद्धिकता की बलि देना तो पूर्ण रूप से बेवकूफी करना है. बेवकूफी और अनेतिकता भरी प्रथाओं को रोकने के लिए आवाज उठानी ही चाहिए.

हम अपने देश भारत की ही बात करें तो यह धार्मिक विविधताओं से भरा देश है. यहाँ हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई, यहूदी, पारसी आदि सभी धर्मो के लोग प्रचुरता या अल्पता में निवास करते हैं.हमारे देश में सबसे प्राचीन संस्कृति सनातन धर्म को माना जाता है जिसे प्राय: हिन्दू धर्म के नाम से भारत में संबोधित किया जाता है. हिन्दू धर्म को मानने वाले लोग यहाँ बहुसंख्यक हैं हालाँकि “हिन्दू धर्म” का कोई अस्तित्व नही है यह “सनातन धर्म (संस्कृति)” का उपनाम कहा जा सकता है. भारतीय अपनी संस्कृति पर सदैव गर्व करते रहे हैं. मैं आप लोगो का ध्यान इस बात पर आकर्षित करना चाहता हूँ की हम भारतीय अपनी किस संस्कृति पर गर्व करते हैं. समूचे विश्व में हमारी पहचान विभिन्न प्रकार की विविधताओं के अतिरिक्त हमारी अनेक प्रथाओं से युक्त संस्कृति के कारण भी है लेकिन इसी संस्कृति में बाल विवाह, सती प्रथा जैसे दाग भी लगे हुए थे इसी प्रकार फ़्रांस, अमेरिका, और कई अन्य यूरोपियन देशों तथा कुछ एशियाई देशों में भी इतिहास प्रथाओं के साथ साथ कुप्रथाओ के दाग की गवाही देता है. किन्तु भारत सहित अनेक राष्ट्रों की प्रसंशनीय बात ये है की इन्होने अपना रुख उदार और बौद्धिकता पूर्ण रखा और कट्टरवाद को लम्बे समय तक हावी नही होने दिया और वर्तमान में ये सभी संस्कृतियां अधिकांशत: अपने समाज से कुप्रथाओ को मिटने में कामयाब हो गई हैं या कामयाबी के लगबग पास हैं. हालाँकि इन कुप्रथाओं को पाने के लिए पर्याप्त विरोधों और कठिनाइयों का भी सामना हुआ है लेकिनविरोध और कठिनाई ही तो सफलता के मार्ग हैं भला इनसे कब दूर रहा जा सकता है.
जैसा मेने प्रारंभ में कहा, “कट्टरपंथी मनुष्य किसी भी धर्मं का हो वास्तव में वह धर्म से कोसों दूर होता है” क्यूंकि वह अन्धविश्वास का चश्मा उतार कर सही या गलत नही सोचना चाहता. वह अपने धर्म में उसके पूर्वजों दवारा बताई गई या उसके धर्म गुरुओं द्वारा समझाई गई प्रथाओं को छोड़ना नही चाहता चाहे वह गलत हो, अनेतिक हो या संकीर्ण हो. धर्म कभी मनुष्य को संकीर्ण सोच के साथ जीना नही सिखाता.
मैं बात कर रहा था अपने देश की विविध संस्कृति की. हमारी संस्कृति में सनातन धर्म के लोगो ने बौद्धिकता को खुले ह्रदय से स्वीकारा है और यही कारण है की इस धर्म में अनेक कुरीतियों और कुप्रथाओं को समाप्त भी किया गया और जो कुछ कुप्रथाएं बची भी हों तो उन्हें सनातन धर्म का समाज तेजी के साथ त्याग भी रहा है.
यहाँ एक बात और ध्यान देने लायक है की समूचे विश्व में विद्यमान धर्मों में फैली कुरुतियाँ अधिकांशत: महिलाओं से सम्बंधित ही थी. अधिकांशत: प्रत्येक धर्म में महिलाओं की सामाजिक स्थिति ही इन् कुप्रथाओं के कारण प्रभावित हुई है. जबकि सभी धर्मों के लोग अपनी अपनी व्याख्या में यह साबित करने की कोशिश करते रहे हैं कि उनके यहाँ महिलाओं का जो स्थान वह किसी का नही है लेकिन कटु सत्य तो ये ही है की इन प्रथाओं के कारण महिलाओं का आत्मसम्मान और सम्मान दोनों ही नदारद रहे हैं.हालाँकि वर्तमान में महिलाओं की स्थिति को लेकर अनेक सुधर किये गये हैं और अधिकांश धर्मों ने इन सुधारों का खुला स्वागत भी किया है फिर भी कहीं कहीं पर यह स्थिति अत्यंत ही भयावह है.
हमारे देश की संस्कृति इस्लाम धर्म मानने वालों की संख्या भी प्रचुर है हालाँकि सनातन धर्म के अनुयाइयों की अपेक्षाकृत यह काफी कम है किन्तु यह धार्मिकता के अधर पर भारत में दूसरी बड़ी जनसँख्या है. यह अत्यंत कष्ट दायक है की धार्मिक कट्टरता के कारण इस समाज में फैली कुरूतियां समाप्त होने का नाम ही नही लेती और महिलाओं की सबसे अधिक बदतर स्थिति इसी समाज में है और इस्लाम धर्म की यह समस्या मात्र भारत में ही नही समूचे विश्व में है. और सबसे बड़ी समस्या यह है की कोई भी इस्लाम मानने वाला व्यक्ति इस विषय पर बौद्धिकता के साथ विचार करना नही चाहता. इस्लाम धर्म की महिलाओं के अधिकारों के विषय में बात करने के लिए धार्मिक पुरुष व्यक्ति सिर्फ इतना कह कर पल्ला झाड़ लेते है की इस्लाम धर्म में जितना आदर महिलाओं को प्राप्त है इतना किसी धर्म में नही है. इस्लामिक धार्मिक नेता और गुरु महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने वास्ते कोई प्लातेफ़ोर्म तक मुहैया कराना जरुरी नही समझते. वो आज भी अपने धर्म में पुरुषों को मिले चार विवाह के अधिकार को अल्लाह का हुक्म मानने जैसी छोटी बात कर रहे है. इस्लाम के सभी धर्म गुरु और नेता अपने समाज और परम्पराओं में फैली बुराइयों को दूर करना तो दूर उन पर विचार करने को भी तैयार नही है. यही कट्टरवाद इस्लाम को पिछड़ेपन की ओर धकेल रहा है. अल्लाह नैतिकता के मार्ग पर चलने को कहता है और चार विवाह करने में किस प्रकार की नैतिकता है? महिलाओं को बिना किसी कसूर के सिर्फ तलक शब्द का उपयोग कर तलक दे देने में किस प्रकार की नैतिकता? ऐसी और भी अनेक बुराइया हैं जिनका अवलोकन इस्लाम धर्म के मानने वालों को और इस्लामिक धर्म गुरुओं दोनों को करना चाहिए जिस से की यह समाज भी भविष्य में सभी समाजों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल सके.
एक बात यह भी दिलचस्प है कि प्रायोगिक तौर पर देखें तो अधिकांशत: समाज की संरचना के हिसाब से समूचे विश्व में इस आधी आबादी का कोई धर्म ही नही है. महिला की जिस से शादी होगी उसके पति का धर्म ही उसका धर्म हो जाता है अगर इसका कहीं पर अपवाद भी हो तो एक समस्या तो सदेव रहती ही है कि महिला से पैदा होने वाले बच्चे का उपनाम या धर्म उसे पिता से ही विरासत में मिलता है. बच्चे को विरासत में माँ का धर्म क्यूँ नही मिल सकता. ऐसा दोहरा व्यवहार इस आधी आबादी के लिए क्यूँ है. अगर यही धर्म है तो मैं कहता हूँ की कोई धर्म नही है इस विश्व में. धर्म सिर्फ न्याय, सत्य और मनुष्यता होना चाहिए. महिलाएं प्रत्येक समाज में आधी आबादी हैं और वे भी मनुष्य है. प्रत्येक समाज को उन्हें भी मनुष्य हनी पर गर्व करने के लिए अवसर प्राप्त करवाना पुरुष समाज की मुख्य जिम्मेदारी है क्यूंकि पुरुष समाज मजबूत स्थिति में है.
यह बात इस्लामिक अनुयाइयों की नजर में भड़काऊ और इस्लाम विरोधी हो सकती है लेकिन वास्तविकता में यह उनकी सामाजिक स्थिति सुधरने के लिए अत्यंत जरुरी है कि वे अपने समाज और परम्पराओं में फैली कुप्रथाओं पर नए सिरे से विचार करें और समाज के लिए कल्याणकारी नियम बनाएं. और नए नियम बनातें हुए ये भी ध्यान रखें की स्त्री हो या पुरुष ईश्वर ने सभी को मनुष्य बनाया है और दोनों ही समाज का अभिन्न हिस्सा हैं अत: सभी के लिए न्यायपूर्ण नियम बनाये जाने चाहिए.
और अंत में मेरी सभी धर्मों से यही अपील है कि प्रत्येक व्यक्ति को अन्धानुकरण से बचकर कट्टरवाद का चोला उतारकर एक आदर्श समाज की स्थापना करनी चाहिए जिसमे सभी को श्रेष्ठ और समान अधिकार प्राप्त हों.

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