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यूँ इधर कुछ रोज से
खुदा भी हैरान है
रची थी आयते
जो उसने कभी
मनुष्य दे रहा
उन्हें भी चुनोतियाँ
न जाने किस घमंड में
नादान है बेफिक्र
छूकर चाँद को कर रहा
समुद्र सी अठखेलियाँ
शायद इधर कुछ रोज से
गुमराह है इन्सान भी
खुदा की हिदायतों को
दे रहा चुनोतियाँ!
कलाकृतियाँ जड़ी थी
जो उसने कभी
उनकी दे रहा कुर्बानियां
अतिक्रमण आकाशगंगा में
पहाड़ो का संकुचन
समेट कर नदियों को
कर रहा मनमानियां
रची थी आयतें
खुदा ने जो कभी
मनुष्य दे रहा
उन्हें भी चुनौतियाँ
चुनौतियाँ है कि
खत्म होती नहीं
नए भूखंड की
भूख ख़त्म होती नही
मनुष्य पैदा कैसे हुआ?
ये टीस ख़त्म होती नहीं
खुदा से भी बड़ा
हो जाये मनुष्य
कर रहा
ये सभी तैयारियां
रची थी आयतें
खुदा ने जो कभी
मनुष्य दे रहा
उन्हें भी चुनौतियाँ
मगर
उसकी बादशाहत
वो ही पहचाने
उसकी शरारत
भी वो ही जाने
हम तो बस इतना
पहचानते है
कि जब ख़त्म होती है
उसकी मेहरबानियाँ
तभी पड़ती है
मौसम की मार,
तभी आती हैं
सुनामी लहरें
और…तभी आती हैं
भूकंप से बरबादियाँ.
[मौलिक एवं अप्रकाशित रचना]
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