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साहित्य समाज का दर्पण है. उत्कृष्ट साहित्य समाज की न सिर्फ दिशा तैय करता है बल्कि सतत परिवर्तन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और साथ ही साहित्य हमारी भाषा और संस्कृति की भी सुरक्षा करता है. जिस भाषा में साहित्य का सृजन होना बंद हो जाये उस भाषा का नष्ट होना प्रारंभ हो जाता है, और ठीक इसी प्रकार जब हमारा साहित्य आदर्शों से हटकर, संस्कृति को छोड़कर सृजित किया जाता है तब हमारी भाषा पहचान खोने लगती है तथा हमारी संस्कृति भी खतरे में पड़ने लगती है और उसमे अनेक कुरुतियाँ स्वयं बिन बुलाये मेहमान की तरह चली आती है. साहित्य सृजन का उद्देश्य हमारी संस्कृति, भाषा, आदर्श, मानवता और देश हितों की रक्षा करना होना चाहिए. मनोरंजन भी एक उद्देश्य हो सकता है किन्तु सर्वोपरि उद्देश्य नहीं हो सकता. अत: साहित्य की सुरक्षा करना और उसका संरक्षण करना हमारा भी कर्त्तव्य बनता है. किन्तु आज हमारे देश में साहित्य का सृजन अधिकांशत: मनोरंजन के लिए ही किया जा रहा है. यह अत्यंत खेद का विषय है. ऐसा नहीं है कि हमारे देश में उत्कृष्ट लेखन करने वाले लोग नहीं है, ऐसा भी नहीं है कि देश में कुछ भी अच्छा नहीं लिखा जा रहा है. अच्छा साहित्य सृजित करने वाले हजारों साहित्यकार अभी देश में हैं और शायद होते भी रहेंगे यही कारण है की अनेक विदेशी शक्तियों की कोशिशो के बाद भी हमारी संस्कृति को मिटाया नहीं जा सका है. किन्तु अच्छे साहित्यकार होने के बाद भी समस्या यह है कि इन अच्छे साहित्यकारों की सुन्दर मूल्यपरक रचनाओं के लिए कोई ऐसा व्यापक मंच उपलब्ध नहीं है जिससे कि इनके विचार लाखों-करोडो लोगों तक पहुँच सकें. अच्छे साहित्य के लिए कुछ चुनिन्दा पाठक या श्रोता ही उपलब्ध हो पाते है. क्यूंकि टेक्नोलोजी के इस युग में भी श्रेष्ठ साहित्य प्रिंट मीडिया तक ही सीमित है….श्रेष्ठ साहित्य का बहुत कम ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में उपयोग हो पता है..और आज की युवा पीड़ी पुस्तकों में अपना समय कम और टीवी पर अपना समय अधिक देना पसंद करती है..इसी का फ़ायदा उठाकर कुछ विदेशी कम्पनिया और कुछ देशी मुनाफाखोर फूहड़ साहित्य को लोगों के सामने दृश्य साहित्य का निर्मित कर परोसकर रख देते है. और अच्छा लेखन किसी प्रेस या लाइब्रेरी में धुल चाट रहा होता है..धीरे धीरे इस फूहड़ साहित्य ने इतना बड़ा श्रोता वर्ग एवं दर्शक कुंड स्थापित कर लिया है कि उसे खाली कर पाना एक असंभव सा कार्य प्रतीत होने लगा है..यह फूहड़ साहित्य दिन प्रतिदिन हमारी भाषा, हमारी संस्कृति और हमारे चरित्र पर वार कर रहा है और हम तमाशबीनो की तरह अपनी अपनी बारी का इन्तेजार कर रहे है. इस साहित्य की सबसे बड़ी दर्शक संख्या देश की आधी आबादी है..वह आबादी जो हमारें बच्चो को जन्म देती है और उसके पश्चात् वो उन्हें चरित्र प्रदान करती है..वह आबादी इस घटिया साहित्य की सबसे बड़ी दीवानी है..इतना बड़ा दर्शक वर्ग मिलने के पश्चात ऐसे साहित्य का दृश्य निर्माण इतना अधिक होने लगा है की ये लोग घटिया लिखने वालों को अच्छा पुरुस्कार देने में समर्थ रहते है और बहुत से लेखक भी नाम वैभव और धन के लालच में उन लोगों के लिए लिखने से परहेज नहीं करते..यह हमारे टीवी पर दिखाए जाने वाले प्रोग्राम्स का ही असर है की आज हम अपने बच्चो को अंग्रेजी माध्यम में ही पढ़ना चाहते है..हम चाहते है कि बच्चे घरों में वार्तालाप भी अंग्रेजी भाषा में ही करें..अपने आप को सभ्य और समझदार समझने वाले लोगों का हिंदी भाषा पर शर्म महसूस करना दुर्भाग्य की बात है जबकि इन्ही सभ्रांत लोगों को मुन्नी बदनाम हुई, और शीला की जवानी जैसे गानों पर थिरकने में कोई शर्म महसूस नहीं होती है. और यह सब इस दृश्य साहित्य की देन है जिन पर भारत के धनाड्य वक्तियों और विदेशी चेनलों का प्रभुत्व स्थापित है..किसी धारावाहिक में एक से अधिक पत्नी या पति का होना, बच्चों के प्रेमी बदलते रहना, लड़कों का लड़कियों में और लड़कियों का लड़कों में प्रसिद्ध रहने के लिए चरित्रहीन हरकतें करना..ये..ये ..सब तो हमारी संस्कृति नहीं है… जिसकी बम में हो दम जैसी उपमाएं..ये भी हमारी संस्कृति में नहीं है…..क्लबों में पार्टियों में शराब के नशे में चूर होकर लड़के लड़कियों को देर रात तक मस्ती करना…ये भी हमारी संस्कृति नहीं है…शादी से पहले वाहियात बेचलर पार्टिया आयोजित करना…ये तो कोई रस्म भी नहीं है…..एकल या संयुक्त परिवारों की जो कहानिया हमारे सामने परोसी जा रही हैं….वो तो हमारी संस्कृति है ही नहीं…मगर आज हमें वही सब पसंद आ रहा है…क्यूँ हम अपने संस्कृति और साहित्य का ऐसा मजाक बना रहे है…आप डियोड्रेंट के विज्ञापनों को देख कर अंदाजा लगा सकते है की फूहड़ता की हद पार कर रखी है, और न तो इन कम्पनियों को ऐसे फिल्म/धारावाहिक/विज्ञापन बनाने में शर्म महसूस होती है और न चेनलों को. मगर सबसे बड़ी बात इन विज्ञापनों को लिखने वालों और डिजाइन करने वालो को भी कोई शर्म या आत्मग्लानी मेसूस नहीं होती..बल्कि वे इस काम के लिए लाखों रुपयों से पुरुस्कृत किये जाते है या उन्हें लाखों रूपए महिना का वेतन प्राप्त होता है..और इस घटियापने के सामने साहित्य की उपेक्षा हो जाती है..चार बोतल बोटका जैसे जुमले आज उन बच्चों की जुबान पर भी आपको मिल जायंगे जिन बच्चो को शराब का मतलब भी नहीं पता और ऐसे युवाओं के मुख से भी सुनने को मिल जायंगे जिन्हें मैथलीशरण गुप्त जी की देशभक्ति की भी कोई कविता याद न होगी…तो इसका अर्थ यह है कहीं न कहीं इस ग्लोब्लिजाशन की दौड़ में हमारा साहित्य तो पिछड़ रहा है और अगर इस पर जल्दी ही कोई ध्यान नहीं दिया गया तो हम और ज्यादा गर्त में फंसते चले जायंगे. हम जैसा साहित्य पड़ते, सुनते और देखते हैं वैसा ही हमारा चरित्र निर्माण होता है..हम अगर इस तरह का घटिया साहित्य देखते रहेंगे तो हम भले ही स्वयं पर सैयम रख लें मगर आने वाली पीड़ी को हम एक ख़राब चरित्र ही सौपकर जायेंगे.. आमतौर पर अपने रिश्तेदारों या पड़ोसियों के बच्चो के बिगड़ने या कोई अपराध कर देने पर कह देते हैं की टीवी देख देख कर बिगड़ रहे हैं आजकल के बच्चे..मगर दोस्तों वो दिन भी आ सकता है जब हमारे बच्चों के लिए दुसरे लोगों द्वारा यही वक्तव्य उपयोग किया जा रहा हो होगा! और यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है तो श्री नवाज देवबंदी साहब का ये शेर बिलकुल सटीक साबित होगा.-
जलते घर को देखने वालों
फूस का छप्पर आपका है
आग के पीछे तेज हवा है
आगे मुकद्दर आपका है
उसके क़त्ल पे मैं भी चुप था
मेरा नंबर अब आया है
मेरे क़त्ल पे आप भी चुप हैं
अगला नंबर आपका है
अत: हमें अपने साहित्य, संस्कृति और भाषा की रक्षा अवश्य करनी चाहिए और हमें अच्छे साहित्य, संस्कृति के महान और मूल्यपरक नियमो की रचना निरंतर करनी चाहिए नहीं तो हमारे चरित्र की रक्षा कोई नियम या कोई कानून नहीं कर पायेगा..मित्रों ये आवश्यक नहीं है की हम क्या कमाते है, बल्कि आवश्यक ये है कि हम आने वाली पीड़ी को विरासत में क्या सोंपकर जा रहे है..और मुझे लगता है की हम उन्हें विरासत में चरित्रहीनता सौंपकर ही जा रहे हैं..और कुछ नही!
………. पुनीत शर्मा!
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